Friends, with mix feelings of sorrow and pride I am sharing story of Jain Munishree Pujya Shalibhadraji Maharasaab. His journey from a rich diamond merchant from Jaipur to a Jain Santh is much inspiring and thrilling . Recently He completed His long 16 days Santhara in
Balotara (Raj) on 20th Nov.2025.He was born in 1947 in Alwar. He was a single brother of five sister. His real name is Prakashchandaji R. Sancheti. His diamond"s business was spread in India and abroad He got married in 1982 with Mrs. Shashi from Delhi. Once mother told him now time has come he should stop running after wealth and think of religious activities. In Jaipur he got influenced by Pujyashri Jayantilalji Maharaj. Finally he took Diksha under Pujya Champalalji Gurudeo in Sept 94. When he took Diksha his left diamond business was worth crores of Rupees. We were fortunate to take his Darshan at Jodhpur. He went all difficult "Tap" from Moun Vrata to tolerating body pains. I find it too much difficult to pen down his all 'Taps" and virtues .I request readers to read following article copied from Face Book group named as Jainism for Kids-downloaded with thanks. At the end time He covered both eyes to fully disconnect with the world and look deep into soul. My deepest salute to his great and rare soul His life and "Sadhana" will guide Shrawak, Sadhuji for a long timeto come. He totally won over love for own body and all material things Diksha and Santhara example may be more but what He did for Tap what ever varieties He has done may be very very rare and unique,fदेवलोक गमन समाचार
कोटि-कोटि वंदन…
पूज्य श्री शालिभद्रजी मुनि महाराज का जन्म
12 अक्टूबर 1947, अलवर में
पिता श्री रतनचंदजी संचेती एवं माता श्रीमती चंपादेवी जी के घर हुआ।
पांच बहनों के बीच, एकमात्र पुत्र—
संसारिक नाम प्रकाश संचेती।
कम उम्र में ही यश की चाह लिये अलवर से जयपुर आये
और रत्न व्यवसाय प्रारंभ किया।
अत्यंत परिश्रम, बुद्धिमत्ता और सौम्यता से
आप कुछ ही वर्षों में
भारत ही नहीं, बल्कि 50 से अधिक देशों में
प्रसिद्ध जौहरी बन गए।
विशाल बंगले, विदेशी गाड़ियों का काफिला,
वैभव, सम्मान और राजसी जीवन—
संसारिक उपलब्धियों की कोई कमी नहीं थी।
1982 में माता जी ने कहा कि
“पुत्र, अब बस !!!
धन तो बहुत कमा लिया…
अब कुछ धर्म कमाई कर।
साथ तो धर्म ही जाने वाला है।”
इन शब्दों ने भीतर ऐसा झंकार किया
कि आपका हृदय वैराग्य से भर गया।
धन-दौलत तुच्छ लगने लगी।
व्यवसाय सीमित किया।
और सजोड़े सहित आजीवन ब्रह्मचर्य का संकल्प लिया।
इसी वर्ष पू. जयंतिलालजी म.सा. के संसर्ग मिले।
धर्म की अलौकिक बातों ने जीवन की दिशा बदल दी।
और पत्नी श्रीमती शशिजी सहित
दीक्षा का संकल्प पक्का कर लिया।
जयपुर से पैदल
ज्ञानगच्छाधिपति पूज्य श्री चंपालालजी म.सा. के पास
किशनगढ़ पहुँचे।
गुरुदेव ने कहा—
“तुमने वैभवपूर्ण जीवन जिया है,
संयम की कठिनाई को नहीं जानते।”
परंतु दोनों दम्पत्ति का वैराग्य
अटल और अटूट था।
12 वर्ष तक कठोर व्रतों, तप और संकल्पों में रहे।
और अंततः
8 सितम्बर 1994 को जयपुर में
अत्यंत सादगीपूर्ण दीक्षा संपन्न हुई।
संसारिक ‘प्रकाश’ अब बन चुके थे—
और धर्म-सहयोगिनी शशिजी बनीं—
पूज्य श्री जी का पूरा जीवन
तप के 12 प्रकारों से दग्ध होकर
शुद्ध, विशुद्ध और पवित्र बना।
आपकी दिनचर्या—
तेले-तेले पारणा
आयंबिल
सुखी रोटी को पानी में घोलकर पारणा
दिनभर निराहार
तप में सूर्य आतापना
सर्दी में निर्वस्त्र
रात भर ध्यान, कयोत्सर्ग, मौन
अधिकांश जीवन मौन साधना
आपका साधना जीवन
आज के पंचमकाल में
अकल्पनीय तप का साक्षात उदाहरण है।
आपकी कठोर साधना से प्रभावित होकर
आपकी पूज्य माताजी चंपादेवी जी ने भी
2 मार्च 2006 को दीक्षा ली
और दीक्षा के साथ ही
सलेखना-संथारा स्वीकार कर
24 दिन में समाधिमरण किया।
यह दृश्य स्वयं में धर्म का जीवित प्रमाण था।
2018 से बालोतरा के वर्धमान स्थानक में
आप निरंतर विराजमान रहे।
और 5 नवम्बर 2025 से
आपका संथारा—
शांत, गंभीर और पूर्ण जागरूकता से—
गतिमान था।
पूज्य ज्ञान गच्छाधिपति श्री प्रकाशचंद्रजी म.सा.
स्वयं बालोतरा में विराजमान होकर
इस पावन साधना के साक्षी बने।
जब भक्तों का जनसैलाब उमड़ने लगा,
पूज्य श्री ने स्वयं अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली और कहा—
“अब मुझे जगत को नहीं देखना है…
मुझे अपनी आत्मा को देखना है।
कौन आता है, कौन जाता है—
यह देखना नहीं।
अब केवल आत्मार्थी बनना है।”
यह वाक्य ही
पूरे जैन धर्म का सार है।
20 नवम्बर 2025
रात्रि 10:00 बजे
बालोतरा स्थानक में
आपने
यावज्जीवन चोविहार संथारा सहित
अत्यंत शांत और समाधिमय अवस्था में
देवलोक गमन किया।
बालोतरा में—
स्थानकवासी, तेरापंथी, मूर्तिपूजक, स्वेताम्बर, दिगम्बर,
अग्रवाल, महेश्वरी, माली, पुरोहित,
सभी समाजों से
अकल्पनीय जनसागर उमड़ पड़ा।
लंबी-लंबी कतारें लग गयीं।
हर कोई एक महान संत के दर्शन करने
भागता आया।
पंचमकाल के इस कठिन समय में
जहाँ मनुष्य साधारण व्रत भी कठिन समझता है,
वहाँ पूज्य श्री शालिभद्रजी ने सिद्ध किया कि—
“यदि भाव शुद्ध हों, तो कठोरतम संयम आज भी संभव है।”
जिन शासन के इस वीर तपस्वी को
नमन, अभिवादन, और अनंत बार वंदन।
**बार–बार वंदन…
कोटिशः अभिनंदन।** 


प्रस्तुति :
हम है जिन शासन ! -------face book from group Jainism for kids.
JAI JINENDRA--------!--!!---------- JAI MAHAVEERA---------!!!.

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